आत्मज्ञान - एक अविरल ज्ञानस्त्रोत
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SPIRITUAL
5/9/20241 min read
अंजानडगर में, खुशियों का भँवर था|
दर्पण पर कोई, धुंधला सा आवरण था|
मन और मस्तिष्क का, कैसा अंतर्द्वंद था|
दोनों ओर आवेश में जलता, और गरजता, सागर था|
इस ज्वाला के सागर को, ठंडे बर्फ की चाहत थी|
अज्ञानता के दलदल को, ज्ञान के डोर की राहत थी|
उबलते हुए लावा से निकली, मासूम सी वह कली थी|
सफेद चोले में लिपटी, वह कोमल सी काया थी|
उत्तर आई रणभूमि में वह, शस्त्रों से सुसज्जित होकर|
ज्ञान का तलवार, प्रेम की ढाल, और विश्वास का आभूषण उड़कर|
सौम्यता से भरी वह कली, एक विशाल फूल में बदलने लगी|
ज्वालामुखी के लपटों को, अपने अमृत से शांत करने लगी|
प्रेम का मल्हमलिए, वह ज्ञान से आहत करने लगी|
दर्पण के धुंधले आवरण को, चीरकर गिराने लगी|
जीत का ध्वज लहराते हुए, वह प्रीति की वर्षा करने लगी|
मन कीबलखाती नदी को, वात्सल्यके सागर से मिलाने लगी|
जान के अथाह घरोंदे में, संग्राम को शरण मिलना ही था|
सत्य के प्रकाश में, अंधकार का शमन होना ही था|
करुणा की अविरल धारा में, ज्वाला को बह जानाही था|
प्रेम के गहन समुद्र में, तिलिस्म का मोती मिलना ही था||
- निकिता मुँधड़ा
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