रूह हूँ मैं
POEMSHINDIDR. NIKITA MUNDHRA


एक इठलाते हुए शिशु की तरह, कोलाहल कर रहा है ये विवेक |
हर पल में सौ कहानियाँ बुनता, आंकलन कर रहा है यह विवेक।
हर निष्कर्ष पर एक नया प्रश्न, अंतर्द्वंद खेल रहा है यह विवेक।
भूत भविष्य से लम्हे चुरा कर, सिपाही बन रहा है ये विवेक।
एक चंचल हिरण की भाँति, फुदक रहा है देखो ये मन।
कोई प्रेम से पुकारें, तो खिल उठता है ये मन।
कोई अपना रूठ जाए, तो शोक से घिर जाता है ये मन।
दुनिया के धोखों से, क्रोध से भर जाता है ये मन।
मन की क्रिया पर, आकलन करता है यह विवेक।
विवेक की निष्कर्ष को, अनसुना करता है ये मन|
परन्तु, रूह हूँ मैं।
इस विवेक और मन की रचना करने वाली ऊर्जा हूँ मैं, रूह हूँ मैं।
जब रूठे ये दोनों, इनके आंसुओं का सागर हूँ मैं, रूह हूँ मैं।
जब विवेक थक जाए, तो इस का बसेरा हूँ मैं।
जब मन हार जाए, तो उम्मीद का सवेरा हूँ मैं। रूह हूँ मैं।
विवेक के हर तर्क का, समाधान हूँ मैं।
इस नटखट से मन का, जेलर हूँ मैं, रूह हूँ मैं।
एक शून्य से निकली हूँ, एक शून्य में समाना है।
हर जन्म में, एक विवेक और मन का दायित्व उठाना है।
- निकिता मुँधड़ा